Friday 10 December 2021

एकादशी व्रत कथा

 EKADASHI   VRATKATHA


एकादशी व्रत कथा

.........................श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर' के एक शिष्य थे श्रील भक्ति गौरव वैखानस महाराज। 

ये घटना उस समय की है जब पूज्यपाद वैखानस महाराज जी का संन्यास नहीं हुआ था।

आप ओड़ीसा के राज-गुरु थे। एक बार आप किसी गाँव से गुज़र रहे थे। अंधेरा होने पर आपने पान की दुकान वाले से पूछा - 'मैं एक रात आपके गाँव में ठहरना चाहता हूँ। क्या आप उसकी व्यवस्था कर सकते हैं? या मुझे बतायें कि किसके घर जाने से यह व्यवस्था हो सकती है? '

पान वाले को न जाने क्या सूझी और उसने कहा -- 'हाँ, हाँ क्यों नहीं ! हमारे गाँव में एक मकान खाली पड़ा है। हम पूरी हवेली आपको दे देते हैं । आप वहाँ पर विश्राम करें। आप थोड़ी देर यहाँ प्रतीक्षा करें, मैं उसकी सफाई, इत्यादि की व्यवस्था करवाता हूँ । कुछ समय प्रतीक्षा के बाद पूज्यपाद वैखानस महाराज जी को वहाँ ले जाया गया। और एक कमरे में उनके रहने की व्यवस्था की गयी।

एकादशी का दिन था और महाराज जी का नियम था कि आप एकादशी को सारी रात माला किया करते थे। महाराज जी उस हवेली में हरे कृष्ण महामन्त्र का जप कर रहे थे, कि आधी रात में कमरे में कुछ डरावनी सी आवाज़ें आने लगीं। महाराज जी स्थिति को समझ गये । चूंकि आपने श्मशान घाट में अमावस्या की रात को भूत-सिद्धि की हुई थी, इसलिए आप ज़रा भी नहीं घबराये।

गरज़ते हुए स्वर में आपने पूछा - 'कौन हो तुम? क्या चाहते हो?'

आवाज़ आयी -- 'मैं तुम्हें खा जाऊँगा।'

महाराज जी ने कहा -- 'मैं ब्राह्मण हूँ । ब्रह्म-हत्या करने से डर नहीं लगता तुम्हें।'

'मुझे क्या डर..?'

'पहले जो तुमने पाप किये, या आत्महत्या की उसके कारण तुम्हारी यह गति हुई। अब ब्रह्म-हत्या करने से जानते हो क्या होगा, मैं तुम्हारा कल्याण कर सकता हूँ।'

अब आवाज़ में काफी नरमी थी। मैं इस घर की मालकिन थी । इसी कमरे में मैंने आत्म-हत्या की थी। आत्म-हत्या करने के कारण मुझे यह प्रेत-योनि प्राप्त हुई। मैं बहुत परेशान हूँ । कर्मानुसार भूख लगती है, पर खा नहीं सकती, प्यास लगती है, पानी भी पी नहीं सकती ।'

महाराज जी ने पूछा -- 'क्या करने से तुम्हारा कष्ट जायेगा.?'

'एक एकादशी का फल भी अगर मुझे मिल जाये, तो मैं इस योनि से मुक्त हो जाऊँगा ।'

महाराज जी ने कहा -- 'चिन्ता की कोई बात नहीं। आज एकादशी है, मैं सारी रात हरिनाम करूँगा, तुम हरिनाम सुनो।'

प्रातः काल होने पर महाराज जी ने दाहिने हाथ की हथेली में जल लिया और संकल्प मन्त्र पढ़कर एकादशी का फल उस घर की मालकिन के निमित्त प्रदान कर दिया।

सारे दिन की थकान, पूरी रात हरिनाम करने के बाद महाराज जी विश्राम करने लगे।

इधर गाँव में प्रातः काल जब ये चर्चा लोगों को पता लगी कि पान वाले ने किसी महात्मा को भूत हवेली में ठहरा दिया है तो सारे चिन्तित हो गये । सभी को यह विश्वास था कि पहले की तरह भूत ने इस महात्मा को भी मार दिया होगा और पान वाले को भला-बुरा कहने लगे। साथ ही लोगों को यह भी डर था कि वे राज-गुरु हैं, उन्हें कुछ होने से राजा हमें दण्ड देंगे ।

बहुत सी बातचीत के बाद ये निर्णय लिया गया कि पहले हवेली में जाया जाए और देखा जाय। यदि कोई अशुभ घटना घटी है तो हम पान वाले को आगे कर के, क्षमा माँगते हुए राजा को सारी बात बता देंगे।


दरवाज़ा खटखटाया गया। अन्दर से कोई आवाज़ न आती देख, सभी अनहोनी घटना को सोच कर घबरा गये। परन्तु लगातार दरवाज़ा खटखटाने से अन्दर से उच्च स्वर में हरिनाम की आवाज़ आयी और महात्मा ने दरवाज़ा खोला। महात्मा को जीवित देख कर सभी की जान में जान आई। उन्होंने राजगुरु जी को पूछा -- 'आप ठीक ठाक हैं? रात को कोई असुविधा तो नहीं हुई ?' 

राजगुरु ने कहा-- 'नहीं ! कोई असुविधा नहीं। इस घर की मालकिन बहुत परेशान थी, मैंने एकादशी का संकल्प करके उसे पिशाच जन्म से मुक्ति दिला दी है।'

सभी राजगुरु से पिशाच के उद्धार की बात सुन कर हैरान हो गये और श्रद्धा से उन्हें प्रणाम करने लगे।

.....................................................................................................

वैष्णव जन तो तेने कहिये जे , पिर पराई जाने रे।

.

पर दुक्खे उपकार करे तोये मन अभिमान ना आणे रे ... .....

.

.........कितना सुन्दर भजन है स्वयं नरसी मेहता द्वारा रचित। ... ... ...

कहने का अभिप्राय सिर्फ इतना ही -

-कंठी , तिलक और नियम तो ढोंगी - पाखण्डी भी धारण करते है। ... ... ...

किन्तु सत्य में वैष्णव कहलाने के अधिकारी तो वही है जो पिर पराई जाने रे।

.

-शब्द के प्रहार तो बहुत दूर की बात है जिसके आचरण और क्रिया से भी जीवमात्र के ह्रदय को कष्ट न हो 

-

**एकादशी का फल 

.........................श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर' के एक शिष्य थे श्रील भक्ति गौरव वैखानस महाराज। 

ये घटना उस समय की है जब पूज्यपाद वैखानस महाराज जी का संन्यास नहीं हुआ था।

आप ओड़ीसा के राज-गुरु थे। एक बार आप किसी गाँव से गुज़र रहे थे। अंधेरा होने पर आपने पान की दुकान वाले से पूछा - 'मैं एक रात आपके गाँव में ठहरना चाहता हूँ। क्या आप उसकी व्यवस्था कर सकते हैं? या मुझे बतायें कि किसके घर जाने से यह व्यवस्था हो सकती है? '

पान वाले को न जाने क्या सूझी और उसने कहा -- 'हाँ, हाँ क्यों नहीं ! हमारे गाँव में एक मकान खाली पड़ा है। हम पूरी हवेली आपको दे देते हैं । आप वहाँ पर विश्राम करें। आप थोड़ी देर यहाँ प्रतीक्षा करें, मैं उसकी सफाई, इत्यादि की व्यवस्था करवाता हूँ । कुछ समय प्रतीक्षा के बाद पूज्यपाद वैखानस महाराज जी को वहाँ ले जाया गया। और एक कमरे में उनके रहने की व्यवस्था की गयी।

एकादशी का दिन था और महाराज जी का नियम था कि आप एकादशी को सारी रात माला किया करते थे। महाराज जी उस हवेली में हरे कृष्ण महामन्त्र का जप कर रहे थे, कि आधी रात में कमरे में कुछ डरावनी सी आवाज़ें आने लगीं। महाराज जी स्थिति को समझ गये । चूंकि आपने श्मशान घाट में अमावस्या की रात को भूत-सिद्धि की हुई थी, इसलिए आप ज़रा भी नहीं घबराये।

गरज़ते हुए स्वर में आपने पूछा - 'कौन हो तुम? क्या चाहते हो?'

आवाज़ आयी -- 'मैं तुम्हें खा जाऊँगा।'

महाराज जी ने कहा -- 'मैं ब्राह्मण हूँ । ब्रह्म-हत्या करने से डर नहीं लगता तुम्हें।'

'मुझे क्या डर..?'

'पहले जो तुमने पाप किये, या आत्महत्या की उसके कारण तुम्हारी यह गति हुई। अब ब्रह्म-हत्या करने से जानते हो क्या होगा, मैं तुम्हारा कल्याण कर सकता हूँ।'

अब आवाज़ में काफी नरमी थी। मैं इस घर की मालकिन थी । इसी कमरे में मैंने आत्म-हत्या की थी। आत्म-हत्या करने के कारण मुझे यह प्रेत-योनि प्राप्त हुई। मैं बहुत परेशान हूँ । कर्मानुसार भूख लगती है, पर खा नहीं सकती, प्यास लगती है, पानी भी पी नहीं सकती ।'

महाराज जी ने पूछा -- 'क्या करने से तुम्हारा कष्ट जायेगा.?'

'एक एकादशी का फल भी अगर मुझे मिल जाये, तो मैं इस योनि से मुक्त हो जाऊँगा ।'

महाराज जी ने कहा -- 'चिन्ता की कोई बात नहीं। आज एकादशी है, मैं सारी रात हरिनाम करूँगा, तुम हरिनाम सुनो।'

प्रातः काल होने पर महाराज जी ने दाहिने हाथ की हथेली में जल लिया और संकल्प मन्त्र पढ़कर एकादशी का फल उस घर की मालकिन के निमित्त प्रदान कर दिया।

सारे दिन की थकान, पूरी रात हरिनाम करने के बाद महाराज जी विश्राम करने लगे।

इधर गाँव में प्रातः काल जब ये चर्चा लोगों को पता लगी कि पान वाले ने किसी महात्मा को भूत हवेली में ठहरा दिया है तो सारे चिन्तित हो गये । सभी को यह विश्वास था कि पहले की तरह भूत ने इस महात्मा को भी मार दिया होगा और पान वाले को भला-बुरा कहने लगे। साथ ही लोगों को यह भी डर था कि वे राज-गुरु हैं, उन्हें कुछ होने से राजा हमें दण्ड देंगे ।

बहुत सी बातचीत के बाद ये निर्णय लिया गया कि पहले हवेली में जाया जाए और देखा जाय। यदि कोई अशुभ घटना घटी है तो हम पान वाले को आगे कर के, क्षमा माँगते हुए राजा को सारी बात बता देंगे।

दरवाज़ा खटखटाया गया। अन्दर से कोई आवाज़ न आती देख, सभी अनहोनी घटना को सोच कर घबरा गये। परन्तु लगातार दरवाज़ा खटखटाने से अन्दर से उच्च स्वर में हरिनाम की आवाज़ आयी और महात्मा ने दरवाज़ा खोला। महात्मा को जीवित देख कर सभी की जान में जान आई। उन्होंने राजगुरु जी को पूछा -- 'आप ठीक ठाक हैं? रात को कोई असुविधा तो नहीं हुई ?' 

राजगुरु ने कहा-- 'नहीं ! कोई असुविधा नहीं। इस घर की मालकिन बहुत परेशान थी, मैंने एकादशी का संकल्प करके उसे पिशाच जन्म से मुक्ति दिला दी है।'

सभी राजगुरु से पिशाच के उद्धार की बात सुन कर हैरान हो गये और श्रद्धा से उन्हें प्रणाम करने लगे।

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वैष्णव जन तो तेने कहिये जे , पिर पराई जाने रे।

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पर दुक्खे उपकार करे तोये मन अभिमान ना आणे रे ... .....

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.........कितना सुन्दर भजन है स्वयं नरसी मेहता द्वारा रचित। ... ... ...

कहने का अभिप्राय सिर्फ इतना ही -

-कंठी , तिलक और नियम तो ढोंगी - पाखण्डी भी धारण करते है। ... ... ...

किन्तु सत्य में वैष्णव कहलाने के अधिकारी तो वही है जो पिर पराई जाने रे।

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-शब्द के प्रहार तो बहुत दूर की बात है जिसके आचरण और क्रिया से भी जीवमात्र के ह्रदय को कष्ट न हो।

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